कर्माबाई
जन्म : करमा बाई का जन्म कालवा गाँव के किसान जीवनराम डूडी के घर माता रतनी देवी की कोख से भादवा बदी एकं अर्थात 20 अगस्त 1615 ई. को हुआ।[2][3] कर्मा बाई के पिता चौधरी जीवणराम डूडी ईश्वर में बहुत आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। उनका नित-नियम था कि जब तक भगवान कृष्ण की मूर्ति को जलपान नहीं कराते तब तक स्वयं भी जलपान नहीं ग्रहण करते थे। उन्होने ईश्वर प्राप्ति के लिए अनेक तीर्थों का भ्रमण किया था। [4]
करमां बाई ने पर्ची में जन्म स्थान मरूप्रदेश का आनंदपुर बताया है जो कालवा ही है। उसके जन्म पर मूसला धार बरसात हुई थी। जिससे गाँव में खुशियाँ फ़ैल गयी थी। करमा बाई पैदा होते ही हंसी थी जो एक चमत्कार था। एक बूढी दाई ने तो कहा कि यह बालिका ईश्वर का अवतार है.[5]
मनसुख रणवा के अनुसार करमा बाई का विवाह छोटी उम्र में ही अलवर जिले के गढ़ी मामोड गाँव में साहू गोत्र के लिखमा राम के साथ कर दिया। कुछ ही समय बाद पति की मृत्यु हो गयी। करम बाई उस समय कालवा में ही थी। उनका अंतिम संस्कार करने के लिए वह ससुराल गाढ़ी मामोड चली गयी। वह घर और खेत का सारा काम करती थी। अतिथियों की खूब आवभगत करती थी। कालवा ही नहीं आस-पड़ौस के गाँवों में उसकी प्रसंसा होने लगी।[9]
करमा बाई का भगवान को खिचड़ी खिलाना : एक लोक गीत से पता चलता है की इनके पिता भगवान के बड़े भक्त थे और उनको भोग लगा कर ही भोजन ग्रहण करते थे। एक दिन इनके पिता तीर्थ-यात्रा पर गए और भगवान की पूजा अर्चना व भोग लगाने की जिम्मेदारी बाई कर्मा को सौंप गए। दूसरे दिन भोली करमाँ ने खिचड़ी बनाकर भगवान् को भोग लगाया तो भगवान ने ग्रहण नहीं किया। तब करमा बाई ने सोचा कि शायद परदा न होने के कारण भगवान भोग नहीं लगा रहे हैं। उसने अपने धाबलिये (घाघरे) का परदा किया और मूंह दूसरी तरफ फेर लिया, ताकि भगवान् भोग लगा सके। फिर भी नतीजा कुछ न निकला। उसने भगवान से फिर कहा, “भगवान् आप भोजन नहीं करते तो मैं भी नहीं खाऊँगी।” करमा उस दिन भूखी रह गयी। उसने दूसरे दिन फिर खिचड़ी बनाई और घाघरे का परदा करके भगवान के फिर से भोग लगाया। दूसरे दिन भी कोई नतीजा नहीं निकला। तब उसने कहा कि यदि आप नहीं खायेंगे तो मैं न तो खिचड़ी खाऊँगी और न भोग लगाऊंगी। भूखी रहकर प्राण त्याग दूँगी। इस तरह तीन दिन बीत गए। तीसरे दिन भगवान् ने करमाँ को स्वप्न में कहा , “उठ ! जल्दी से खिचड़ी बना, मुझे बड़ी भूख लगी है। ” [10] [11]
करमा बाई हडबड़ा कर उठी, जल्दी से खिचड़ी पकाई और परदा कर के भगवान के भोग लगाया। थोड़ी देर में देखा कि भगवान सारी खिचड़ी खा गए हैं। करमा बाई का खुसी का ठिकाना न रहा। अब वह नित्य प्रति भगवान को खिचडी का भोग लगाने लगी और बालरूप में भगवान आकर उसकी खिचडी खाने लगे। यह करमा बाई के भक्ति की चरम सीमा थी।
करमा बाई के घर भगवान द्वारा स्वयं आकर भोजन करने की बात दिन दूनी रात चौगुनी चारों तरफ फ़ैल गयी। [12]नाभादास कृत भक्तमाल में करमा बाई के सम्बन्ध में इस प्रसंग का उल्लेख मिलता है। चारण ब्रह्मदास दादूपंथी विरचित ‘भगत माल’ में भी इसका उल्लेख इस प्रकार है-
- जिमिया खीच करमां घिरे ज्वार का
- बडम धिन द्वारिका तणा वासी
काफी दिनों बाद जब करमा बाई के पिता तीर्थ यात्रा पूरी करके वापिस लौटे तो उन्हें यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि प्रभु रोज करमा बाई की खिचड़ी खाने आते हैं। वह भी अपनी आँखों से भगवान के दर्शन कर धन्य हुए।[13][14]
करमा बाई की प्रसिद्धी: इस तरह करमा बाई के प्रेम में बंधे भगवान जगन्नाथ को भी प्रतिदिन सुबह खिचड़ी खाने जाना पड़ता था। अत: प्रभु जगन्नाथ के पण्डितों ने इस समस्या के समाधान के लिए राजभोग से पहले करमा बाई के नाम से खिचड़े का भोग प्रतिदिन जगन्नाथपुरी के मंदिर में लगाने लगे ताकि भगवान को जाना न पड़े। आज भी जगन्नाथपुरी के मंदिर में करमा बाई की प्रीत का यह ज्वलंत उदहारण देखने को मिलता है जहाँ भगवान के मंदिर में करमा बाई का भी मंदिर है और उसके खीचड़े का भोग प्रतिदिन भगवान को लगता है। परचीकार ने लिखा है –
- करमां के घर जीमता, जो न पतीजो लोक।
- देखो जगन्नाथ में, अज हूँ भोग।
- मलुक को टुकरो बंटे, वटे कबीर की पाण।
- करमांबाई रो खीचड़ो, भोग लगे भगवान।।
करमांबाई की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। करमांबाई ने अपनी पूरी जिंदगी भगवान की भक्ति में व्यतीत कर दी। करमांबाई की भक्ति का परिणाम है कि आज भी राजस्थान में उनकी वात्सल्य भक्ति के किस्से लोगों की जुबान पर हैं। महिलायें कृष्ण मंदिरों में करमांबाई के खीचड़ले से सम्बंधित भजन भक्ति भाव से गाती हैं। इस तरह करमांबाई अपनी अनूठी वात्सल्य भक्ति के कारण इस संसार में प्रसिद्धि प्राप्त कर संवत 1691 (25.7.1634 ई.) में एक दिन परमात्मा में विलीन हो गयी। वह भगवान में आस्था रखने वालों के लिए एक सन्देश छोड़ गयी कि बाह्य शुद्धता के स्थान पर आत्मा की शुद्धता तथा भगवान से सच्ची प्रीत से प्रभु की प्राप्ति सम्भव है।
करमांबाई अपने भोलेपन की भक्ति के बल वह आज भी ऐसी औरतों के लिए उदाहरण बनी हुई है जो आचार-विचार के बिना भगवान में सच्ची प्रीति रखती हैं। करमांबाई वास्तव में सच्ची प्रीति का प्रतीक थी, जैसे कि परचीकार ने लिखा है –
- करमां कुल में जाटणी, नरतन को अवतार।
- प्रेम प्रीत की पूतली, सिरजी सिरजणहार।।
